History of Indian Poetry
हिन्दी साहित्य के इतिहास को विद्वानों ने मुख्यत: चार भागों में विभक्त किया है। यह विभाजन, और नामकरण उस युग की प्रमुख प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर किया गया है-
आदिकाल या वीरगाथा काल- वि० सं० 800 से 1400 तक (सन 743 ई० से 1343 ई० तक)
पूर्व मध्य काल या भक्तिकाल- वि० सं० 1400 से वि० सं० 1700 तक (सन 1343 ई० से 1643 ई० तक)
उत्तर मध्य काल या रीति काल- वि० सं० 1700 से वि० सं० 1900 तक (सन 1643 ई० से 1843 ई० तक)
आधुनिक काल- वि० सं० 1900 से वर्तमान (सन 1843 ई० से वर्तमान)
(1) आदिकाल
हिंदी साहित्य के इस प्रथम काल को विद्वानों ने अनेक नाम दिए हैं। जैसे वीरगाथा काल, चरण काल, आदिकाल तथा सिद्ध सामंत काल आदि। इस काल में देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, इन राज्यों के राजा आपस में लड़ते रहते थे। वे स्वभाव से वीर, साहसी और विलास प्रिय थे। अहंकार, छोटी-छोटी बातों पर मनमुटाव, ईर्ष्या और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति के कारण इनमें प्रायः युद्ध होते रहते थे। मुसलमानों के आक्रमण भी इसी समय आरंभ हो रहे थे। वीरता का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन तथा आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा कवियों की कविता का मुख्य विषय था। इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-
युद्धों का सुंदर एवं सजीव वर्णन।
आश्रय दाता राजाओं की प्रशंसा।
वीर रस के साथ श्रृंगार रस का भी चित्रण।
देशप्रेम किंतु राष्ट्रीय भावना का अभाव।
ऐतिहासिक के साथ कल्पना की अधिकता।
इस काल की वीर गाथा सम्बन्धी रचनाएं दो रूपों में मिलती है-
प्रबंधकाव्य के रूप में।
वीर गीतों के रूप में।
इस काल के वीरगाथा संबंधी कवियों में चंद्रवरदाई (पृथ्वीराज रासो) प्रसिद्ध कवि हैं। अन्य कवियों में दलपति विजय (खुमाण रासो), शारंगधर (हमीर रासो), नल्ला सिंह (विजयपाल रासो), जगनिक (परमाल रासो या आल्हा खंड), नरपति नाल्ह (बीसलदेव रासो), केदार भट्ट (जयचंद्र प्रकाश), मधुकर (जय मयंक चंद्रिका) आदि उल्लेखनीय हैं। आल्हा खंड उत्तर भारत में लोकप्रिय वीर गीत काव्य है।
इस काल में वीर रस के अतिरिक्त कुछ रचनाएं श्रृंगार तथा भक्ति रस में भी लिखी गई हैं। विद्यापति, अब्दुल रहमान तथा कुशल राय इन रचनाओं में प्रमुख हैं।
रासो ग्रंथों की भाषा डिंगल है जो वीर काव्य के लिए अत्यंत उपयुक्त भाषा है। इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज आदि भाषाओं के शब्द भी प्रयोग किए गये हैं।
(2) भक्तिकाल
आदि काल के समाप्त होते होते देश में राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां बदल गई। मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था। इसी परिवर्तित परिस्थिति में भक्ति भावना का उदय हुआ। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस भक्ति भावना ने हिंदी काव्य को विशेष रूप से प्रभावित किया और भक्ति की कई शाखाओं का विकास हुआ। अध्ययन की सुविधा के लिए इस काल के काव्य को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जाता है- निर्गुण शाखा तथा सगुण शाखा।
इन मुख्य शाखाओं की दो-दो उप शाखाएं हैं जो इस प्रकार है-
निर्गुण शाखा- (1) ज्ञानाश्रयी, (2) प्रेमाश्रयी
सगुण शाखा- (1) रामाश्रयी, (2) कृष्णाश्रयी
निर्गुण शाखा
इस भक्ति शाखा के कवियों ने ब्रह्म (ईश्वर) के निराकार स्वरूप की उपासना की विधि को अपनाया। ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों ने ज्ञान और प्रेम को ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग स्वीकार किया। इस शाखा में ईश्वर के अवतारों की कल्पना का निषेध है। केवल निरंतर ब्रह्म की उपासना को महत्व दिया गया है। सहज प्रेम, ज्ञान और सरल तथा सदाचार को ईश्वर प्राप्ति (मोक्ष) का मार्ग माना गया है। भक्ति भावना की अभिव्यक्ति इन संत कवियों का प्रमुख उद्देश्य है, उनकी यही अनुभूति काव्य बन गई है। इन कवियों की भक्ति भावना में ब्राह्मडम्बर, तीर्थ, व्रत, रोजा-नमाज आदि का खंडन है।
कबीर इस शाखा के प्रमुख कवि हैं। इन की प्रसिद्ध रचना ‘बीजक’ है। अन्य संत कवियों में नानक, रैदास (रविदास), दादू , मलूकदास, धर्मदास, सुंदरदास आदि उल्लेखनीय हैं।
निर्गुण भक्ति शाखा की दूसरी उपशाखा प्रेमाश्रयी नाम से प्रसिद्ध है। इस शाखा को पल्लवित करने का श्रेय सूफी मुसलमान कवियों को है। इन्होंने लोक प्रचलित हिंदू राजकुमार और राजकुमारियों की प्रेम गाथाओं को फारसी की मसनवी शैली में बड़े ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है। प्रेम की पीर, विरह वेदना की तीव्रता, कथा की रोचकता और इतिहास तथा कल्पना का समन्वय सूफी कवियों की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मोहम्मद जायसी हैं जिनका प्रसिद्ध ग्रंथ पद्मावत है। अन्य कवियों में कुतुबन, मंझन, उस्मान, शेखनबी आदि उल्लेखनीय हैं।
सगुण भक्ति शाखा
सगुण भक्ति शाखा में ईश्वर के सगुण एवं साकार रूप की उपासना की गई है। राम तथा कृष्ण के लोक रक्षक-एवं लोक-रंजक रूपों की आराधना तथा प्रबंध एवं मुक्तक रचनाएं की गई है। कृष्ण भक्त कवियों द्वारा ब्रज भाषा तथा राम भक्त कवियों द्वारा ब्रजभाषा और अवधी भाषा का प्रयोग किया गया है।
इस शाखा के अंतर्गत भी दो उप शाखाएं हैं- रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी। रामाश्रयी शाखा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को उपास्य मानकर उपासना की गई है। गोस्वामी तुलसीदास इस शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। जिनकी ‘रामचरितमानस’ सर्वश्रेष्ठ रचना है। इस महाकाव्य में जीवन की सर्वांधीणता है। अवधी भाषा में लिखा गया यह महाकाव्य रचना कौशल, प्रबंधपटुता, भावोत्कृष्टता आदि के कारण सर्वोत्कृष्ट काव्य के रूप में प्रतिष्ठित है। राम भक्ति शाखा के अन्य कवियों में केशवदास, नाभादास, अग्रदास आदि उल्लेखनीय हैं।
सगुण भक्ति की दूसरी शाखा कृष्णाश्रयी शाखा के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान श्री कृष्ण का लीला पुरुषोत्तम रूप इस शाखा के कवियों के लिए आराध्य है। राधा कृष्ण की विभिन्न लीलाएं कृष्ण साहित्य के प्रमुख विषय हैं। वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी सूरदास का विशाल काव्य है। अन्य कृष्णाश्रयी कवियों में नंददास, परमानंददास, कुंभन दास, गोविंद स्वामी, मीराबाई, रसखान आदि प्रमुख हैं।
(3) रीतिकाल
सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक इस देश में मुगल साम्राज्य पूर्णत: प्रतिष्ठित हो चुका था। मुगलों के वैभव पूर्ण साम्राज्य में जनजीवन भी सुख शांति पूर्ण था। साहित्य पर इन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। जो कृष्ण और राधा भक्ति के आलंबन थे, वहीं अब श्रृंगार के आलंबन बन गए। इस काल के कवियों में एक और परिवर्तन देखने को मिलता है। कवियों का ध्यान साहित्य शास्त्र की ओर गया और उन्होंने रस, अलंकार, छंद, नायक-नायिका आदि के उदाहरण के रूप में कविताओं की रचना की इस प्रकार रीति ग्रंथ या लक्षण ग्रंथ लिखे जाने लगे। इस काल में ऐसी रचनाओं की अधिकता के कारण ही इसे रीति काल नाम दिया गया।
रीतिकाल के कवियों पर संस्कृत के साहित्य शास्त्र का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस काल के कवियों में जिन्होंने रीति ग्रंथों की रचना की कुछ अलंकारवादी हैं तो कुछ रसवादी हैं। रीतिकाल का आरंभ आचार्य केशवदास से हुआ, वे अलंकारवादी कवि थे। रसों के निरूपण में आचार्य चिंतामणि का नाम सर्वप्रथम आता है। अलंकारवादी कवियों में केशवदास, यशवंत सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। रसवादी कवियों में आचार्य चिंतामणि, कुलपति मिश्र, देव, भिखारी दास आदि प्रमुख हैं। कुछ कवि ऐसे भी हैं जिन्होंने रीति ग्रंथों की रचना न कर मुक्त भाव से रचनाएं की, ऐसे कवि रीतिमुक्त कहे गए।
रीतिबद्ध कवि और उनकी रचनाएं इस प्रकार हैं-
केशव- रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया।
चिंतामणि- रसविलास, श्रृंगारमंजरी, कविकुलकल्पतरू आदि।
मतिराम- रसराज, ललितललाम, सतसई।
जसवंत सिंह- भाषा भूषण।
पद्माकर- पद्भरण, जगद्विनोद, गंगालहरी।
(4) आधुनिक काल
आधुनिक काल को भारतेदु, द्विवेदी, छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी एवं नई कविता के युगों में क्रमश: विभाजित किया गया है।
भारतेन्दु युग (1850 ई० से 1900 ई० तक)
भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक माना जाता है। रीतिकालीन कविता और कवि दोनों सामान्य जनजीवन से दूर हो गए थे। भारतेंदु युग के साहित्यकारों ने जनजीवन से संपर्क स्थापित किया और उनकी भावनाओं को वाणी दी। इस युग में खड़ी बोली गद्य की भाषा बन चुकी थी, किंतु कविता की भाषा ब्रजभाषा ही रही। काव्य विषय की दृष्टि से नवीनता आयी, गद्य के क्षेत्र में नाटक, उपन्यास, निबंध, कहानी आदि का विकास हुआ। कविता के क्षेत्र में भी स्वदेश-प्रेम, समाज-सुधार, प्रकृति चित्रण आदि नवीनताओं का समावेश हुआ।
द्विवेदी युग (सन 1900 ई० से 1918 ई० तक)
सन् 1900 में ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ हिंदी कविता में नवीन एवं आधुनिक प्रवृत्तियों का समावेश हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी के पदार्पण से हिंदी खड़ी बोली आंदोलन को एक नया आयाम मिला, कविता के क्षेत्र में भी खड़ी बोली को स्थान मिला। द्विवेदी जी के व्यक्तित्व से प्रेरणा पाकर अनेक कवियों ने खड़ी बोली में काव्यरचना प्रारंभ की। मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मुकुटधर पांडेय, लोचन प्रसाद पांडेय, रामनरेश त्रिपाठी आदि इस युग के प्रमुख कवि है। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने प्रिय-प्रवास नामक महाकाव्य की रचना इसी युग में की। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को समृद्ध और गतिशील बनाने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इस युग के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं निम्नवत है-
मैथिलीशरण गुप्त- साकेत, जयद्रथ वध, भारत-भारती, अनघ, पंचवटी आदि।
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’- प्रिय प्रवास, वैदेही-वनवास, पारिजात, रस कलश आदि।
पंडित राम नरेश त्रिपाठी- पथिक, मिलन, स्वप्न-मानसी, कविता कौमुदी आदि।
छायावाद युग (सन 1918 से 1938 ई०)
द्विवेदी युग के पश्चात छायावाद युग का अवतरण हुआ। प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा छायावाद के प्रमुख कवि हैं। हिंदी भाषा को सुंदर, समर्थ, ब्रजभाषा के समान सरस बनाने और भावाभीव्यक्ति-शक्ति को बढ़ाने का श्रेय छायावाद युग को ही है। अपनी कल्पनाशक्ति और लाक्षणिक प्रयोग के द्वारा छायावादी कवियों ने कविता को अत्यंत सजीव और सरस बना दिया है। छायावादी कविता जहां अनुभूति और भावुकता से युक्त है वही उसमें चिंतन की प्रधानता भी है।
इस युग के प्रमुख कवि निम्नलिखित हैं-
जयशंकर प्रसाद- कामायनी, लहर, झरना, प्रेम-पथिक, करुणालय, आंसू आदि।
निराला- परिमल, अनामिका, गीतिका, तुलसीदास, अणिमा, अपरा आदि।
पंत- वीणा, ग्रंथि, पल्लव, युगवाणी, चिदंबरा, लोकायतन आदि।
महादेवी वर्मा- नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा आदि।
रामकुमार वर्मा- चित्रलेखा, चंद्रकिरण, संकेत आकाश गंगा, एकलव्य उत्तरायण आदि।
प्रगतिवादी युग (सन 1938 से 1943 ई०)
छायावादी काव्य की अतिशय कल्पनाशीलता एवं सूक्ष्मता के प्रतिविद्रोह तथा कार्ल मार्क्स के साम्यवाद के प्रभाव से जिस नये साहित्यिक युग का सूत्रपात हुआ वह प्रगतिवादी युग का कहलाया। प्रगतिवादी कवियों ने कार्ल मार्क्स के दर्शन को आधार बनाकर रोटी कपड़ा मकान और मजदूरों की समस्या को अपने काव्य का विषय बनाया। सीधी-सादी अलंकार विहीन भाषा में अपनी बातों को कहना इनकी विशेषता है। प्रगतिवादी कवि पूंजीवाद के प्रति सदैव मुखर विरोधी रहे। पंत, निराला, दिनकर, भगवती चरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, अंचल, रामविलास शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल आदि इस युग के मुख्य कवि है।
इस काल के प्रमुख कवियों की रचनाएं इस प्रकार हैं-
दिनकर- रेणुका, हूंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, सामधेनी, रश्मिरथी, उर्वशी आदि।
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’- पर आंखें भरी नहीं, जीवन के गान, प्रलय, सृजन, विंध्य, हिमालय आदि।
नरेंद्र शर्मा- कामिनी, द्रौपदी, उत्तरजय, शूल-फूल, कर्णफूल, पलाशवन आदि।
बालकृष्ण शर्मा नवीन- उर्मिला, प्राणार्पण, कुंकुम अपलक आदि।
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