Ramdhari Singh Dinkar
राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक कविवर रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार राज्यांतर्गत मुंगेर जिले के सिमरिया गांव में 23 दिसंबर 1908 ई० को हुआ था। पटना कॉलेज से इन्होंने सन 1933 ई० में बी. ए. किया और फिर एक स्कूल में अध्यापक हो गए। इसके बाद सीतामढ़ी में सब रजिस्ट्रार बने। द्वितीय महायुद्ध में राजकीय प्रचार विभाग में आ गए। उन दिनों भारत में अंग्रेजों का शासन था और अंग्रेजी सरकार का कोई भी कर्मचारी उस सरकार के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता था। दिनकर ने राजकीय सेवा के काल में भी स्वदेशानुराग की भावना से ओत-प्रोत, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति की भावना से परिपूर्ण और क्रांति की भावना जगाने वाली रचनाएं लिखी।
सन 1950 ई० में इन्हें मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। सन 1952 ईस्वी में इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया और ये दिल्ली आकर रहने लगे। दिनकर की काव्य साधना निरंतर जारी रही। सन 1961 ई० में इनका बहुचर्चित काव्य ‘उर्वशी’ प्रकाशित हुआ। सन 1964 ई० में इन्हें केंद्रीय सरकार की हिंदी समिति का परामर्श दाता बनाया गया। इस पद से अवकाश ग्रहण करने के अनंतर यह पटना में रहने लगे। इनके जवान बेटे की मृत्यु ने इस ओजस्वी व्यक्तित्व को सहसा खंडित कर दिया और तिरूपति के देव विग्रह को अपनी व्यथा-कथा समर्पित करते हुए दिनकर 25 अप्रैल सन 1974 ई० को मद्रास में परलोक सिधारे।
इनकी रचनाओं में रेणुका, द्वंद्वगीत, हुंकार, रसवंती, चक्रवाल, धूप-छांह, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, सामधेनी, नीलकुसुम, सीपी और संख, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, और हारे को हरिनाम कविता पुस्तकें तथा संस्कृति के चार अध्याय, अर्धनारिश्वर, रेती के फूल तथा उजली आग आदि गद्य पुस्तकें प्रमुख है। इनका गद्य भी उच्चकोटि का तथा प्रांजल है। राष्ट्र कवि के रूप में प्रसिद्धि इन्हें ‘रेणुका’ से ही प्राप्त हो गई थी। उर्वशी महाकाव्य पर इन्हें एक लाख रूपये का ज्ञानपीठ पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।
दिनकर प्रारंभ से ही लोग के प्रति निष्ठावान, सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग और जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि रहे हैं। तभी तो इन्होंने छायावादी कवियों की भांति काव्य रचना न करके ‘रेणुका’ का आलोक छिटकाया। फिर रसवंती के प्रणयी गायक के रूप में इनका कुसुम कोमल व्यक्तित्व प्रकट हुआ। लेकिन देश की विषम परिस्थितियों की पुकार ने कवि को भावुकता, कल्पना और स्वप्न के रंगीन लोक से खींचकर ऊबड़-खाबड़ धरती पर लाकर खड़ा कर दिया तथा शोषण की चक्की में पिसते हुए जनसाधारण और उनके भूखे बच्चों का प्रबल समर्थक बना दिया, फिर देश के मुक्तिराग के ओजस्वी गायक के रूप में इनका व्यक्तित्व निखर उठा।
दिनकर के विद्रोह सील व्यक्तित्व को अपने देश के पौराणिक आख्यानो में जो असंगतियां दिखाई दी उन्हें मिटाने के लिए इन्होंने कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी जैसे कथा काव्य की रचना की। पहली रचना कुरुक्षेत्र तो वस्तुतः कथा काव्य नहीं वरन् विचार काव्य है, क्योंकि उसमें हिंसा और अहिंसा की विचारधाराओं का द्वंद्व प्रदर्शित किया गया है। ‘रश्मिरथी’ में सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध वीर कर्ण का आख्यान है। जागरित पुरुषार्थ के कवि दिनकर शांतिप्रियता और अहिंसा की आड़ में फैलने वाली निवीर्यता और अकर्मण्यता को व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के लिए घातक मानते हैं। इनके व्यक्तित्व का यही प्रखर स्वरूप चीनी आक्रमण के समय प्रज्वलित हो उठा था और उन्होंने देशवासियों को ललकारते हुए ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ शीर्षक रचना उपस्थित की थी।
दिनकर की काव्य प्रतिभा का चरमोत्कर्ष उनके नाटकीय कथाकाव्य उर्वशी में दृष्टिगत होता है। इनका इस रचना का कथा प्रसंग तो कालिदास के नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम्’ से लिया गया है, लेकिन उसका प्रस्तुतीकरण आधुनिकबोध से अनुप्रमाणित है।
दिनकर ने अपनी रचनाओं में अपनी विद्रोहशील मनोवृत्ति और सौंदर्य चेतना को वाणी देने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रवृत्तियों को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है। इनके ‘नीम के पत्ते’ संकलन में आज के राजनेताओं पर बड़े तीखे व्यंग्य है। ‘आत्मा की आंखें’ में अंग्रेजी की कुछ नई प्रयोगशील कविताओं के अनुवाद है। इस प्रयास के अनंतर दिनकर जी ने स्वयं भी इस दिशा में कुछ प्रयोग किए। व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन की समस्याओं तथा आपदाओं के कारण एवं दुर्दैव के कठोरतम आघात युवा पुत्र की मृत्यु के कारण इनका ओजस्वी, वर्चस्वी और मनस्वी व्यक्तित्व छोटी-छोटी अतुकांत कविता में टूट-टूट कर पिघल-पिघल कर बह निकला। इनका अंतिम काव्य संकलन ‘हारे को हरिनाम’ ऐसी ही करूण, निराश, दीन, आतुर, आत्मा की विनयपत्रिका है।
इनके काव्य में सभी रसों का समावेश है पर वीर रस की प्रधानता है। चित्रण भावपूर्ण तथा कविता का एक-एक शब्द आकर्षण होता है। इनकी रचनाएं खड़ी बोली में है। भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। उन्होंने अधिकतर आधुनिक छंदों का प्रयोग किया है। इन की शैली ओजपूर्ण प्रबंध शैली है, जिसके माध्यम से इन्होंने पूंजीवाद के प्रति विरोध तथा राष्ट्रीयता की भावना को व्यक्त किया है।
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