Green Revolution In Hindi

 

विश्व में मात्र भारत ही ऐसा देश है, जिसे आज भी कृषि प्रधान या खेती-बाड़ी प्रधान देश कहा जाता है। लेकिन यही देश जब विदेशी आक्रमणों का शिकार होना आरंभ हुआ, इसकी जनसंख्या बढ़ने लगी, समय के परिवर्तन के साथ सिंचाई आदि की व्यवस्था और नवीन उपयोगी औजारों-साधनों का प्रयोग ना हो सका, विदेशी शासकों की सोची समझी राजनीति और कुचाली का शिकार होकर इसे कई बार अकाल का शिकार होना पड़ा। गांधी जी कहा करते थे कि भारत गांवों का देश है हमारे देश की 70% से भी अधिक जनता गांवों में रहती है, जिसका मुख्य व्यवसाय खेती है। इस पर भी समय-समय पर भारत को खाद्यान्नों का बड़े पैमाने पर आयात करना पड़ता है। यह स्थिति बड़ी दुखद है। इस स्थिति से पुख्ता एवं स्थाई रूप से निपटने के लिए हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ।

 

हरित क्रांति का प्रारंभ

 

भारत में हरित क्रांति का प्रारंभ सन 1966-67 में हुआ था। हरित क्रांति को प्रारंभ करने का श्रेय अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक एवं नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर नॉर्मन बोरलॉग के साथ डॉक्टर एम. एस. स्वामीनाथन को भी जाता है। हरित क्रांति से अभिप्राय देश के सिंचित एवं असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाले संकर बीजों के उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि करना है। लाभ तथा जन्म देने वाले घटक – हरित क्रांति के फलस्वरूप देश के कृषि के कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधारों के फलस्वरूप प्रदेश का कृषि उत्पादन बढ़ा है, खाद्यानों में आत्मनिर्भरता आई है, व्यवसायिक कृषि को बढ़ावा मिला है, कृषको दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है तथा कृषि आधिक्य में वृद्धि हुई है। हरित क्रांति के फलस्वरूप गेहूं, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फसलों के प्रति हेक्टेयर उत्पादन एवं कुल उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है।

 

हरित क्रांति का संबंध खेतों की हरियाली और कृषि उत्पादकता बढ़ाने से है। भारत की चौथी पंचवर्षीय योजना में देश को खाद्यान्नों के लिए आत्मनिर्भर बनाने का उद्देश्य स्वीकार करते हुए हरित क्रांति का शुभारंभ किया गया। हरित क्रांति के अंतर्गत कृषि विकास के लिए सुनियोजित प्रयास किए गए जैसे परंपरागत तरीकों के स्थान पर कृषि की नवीन तकनीकों के प्रयोग द्वारा अधिक उत्पादन प्राप्त करना, उन्नत बीजों, रासायनिक खादों, सिंचाई सुविधाओं का तेजी से प्रयोग बढ़ाते हुए कृषि क्षेत्र में उत्पादकता की दृष्टि से क्रांति लाने के प्रयास करना, उत्पादक तकनीक में सुधार करते हुए हल के स्थान पर ट्रैक्टर, गोबर के स्थान पर रासायनिक खादों का प्रयोग तथा मानसूनी वर्षा के स्थान पर सिंचाई के नवीन साधन जैसे ट्यूबवेल तथा पंप आदि द्वारा सिंचाई का कार्य करना।

 

भारत में हरित क्रांति को जन्म देने वाले घटकों में रासायनिक उर्वरकों का अधिक प्रयोग, सिंचाई की लघु योजनाओं का विस्तार, सघन कृषि कार्यक्रम योजना, आधुनिक कृषि उपकरणों का प्रयोग, पौध संरक्षण कार्यक्रम का विस्तार, बहुफसली कार्यक्रम का विस्तार आदि महत्वपूर्ण है।

 

हरित क्रांति का स्वरूप

 

अधिक उपज देने वाले उन्नत किस्म के बीजों तथा रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग, सिंचाई के लिए पानी और बिजली की व्यवस्था, कीटनाशक दवाइयों आदि के विशाल कार्यक्रम को हरित क्रांति कहा जा सकता है। भारत के कृषि वैज्ञानिकों ने ऐसे संकर बीजों की खोज की, जिनसे पहले की तुलना में कई गुना उपज हो सकती है। अनेक प्रकार के रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों, दवाइयों तथा पौधों के रोगों के इलाज के अनुसंधान ने भी इस दिशा में बड़ा योगदान दिया है। इससे हमारे देश में गेहूं की प्रति एकड़ उपज में वृद्धि हुई है। लेकिन चावल के उत्पादन पर इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। इसलिए सच पूछे तो इसे गेहूं क्रांति कहां जाना चाहिए। खेती में काम आने वाले औजारों और यंत्रों के प्रयोग ने भी हरित क्रांति में बड़ी मदद की है। समग्र रूप से इस क्रांति के फलस्वरूप देश में गेहूं के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई है। रासायनिक उर्वरकों और उन्नत किस्म के बीजों से प्रति एकड़ उपज भी बहुत बढ़ी है। हरित क्रांति ने खेती को एक व्यवसाय का रूप दे दिया है। अतः खेती करने में बड़ी पूंजी की आवश्यकता पड़ने लगी है। भारत के अधिकांश किसान गरीब हैं। उनकी कृषि जोत भी बहुत कम है। अतः इस क्रांति का असली लाभ केवल समृद्ध किसान ही उठा पाए हैं।

 

कृषि उत्पादन में सुधार उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि

 

हरित क्रांति अथवा भारतीय कृषि में लागू की गई नई विकास विधि का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि देश में फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि, कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि हो गई। विशेषकर गेहूं, बाजरा, धान, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई, जिसके परिणाम स्वरूप खाद्यान्नों में भारत आत्मनिर्भर सा हो गया। 1951-52 में देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था, जो क्रमशः बढ़कर 2008-09 में 23.38 करोड़ टन तथा 2015-16 में 252.22 करोड़ टन हो गया। इसी तरह प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में भी पर्याप्त सुधार हुआ है। वर्ष 1950-51 में खाद्यान्नों का उत्पादन 522 किग्रा प्रति हेक्टेअर था, जो बढ़कर 2008-09 में 1,893 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया।

 

हरित क्रांति के फलस्वरूप खेती के परंपरागत स्वरूप में परिवर्तन हुआ है और खेती व्यवसायिक दृष्टि से की जाने लगी है। देश में गन्ना, कपास, पटसन तथा तिलहन के उत्पादन में वृद्धि हुई है। कपास का उत्पादन 1960-61 में 5.6 मिलियन गांठ था, जो बढ़कर 2008-09 में 27 मिलियन गांठ तथा 2015-16 में 30 मिलियन गांठ हो गया। इसी तरह तिलहनों का उत्पादन होने 1960-61 में 7 मिलियन टन था, जो बढ़कर 2008-09 में 28.2 मिलियन टन तथा 2015-16 में 25.25 मिलियन टन हो गया। इसी तरह पटसन, गन्ना, आलू तथा मूंगफली आदि व्यवसायिक फसलों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है। वर्तमान समय में देश में बागवानी फसलों, फलों, सब्जियों तथा फूलों की खेती को भी बढ़ावा दिया जा रहा है।

 

हरित क्रांति की कमियां तथा समस्याएं

 

हरित क्रांति के फलस्वरूप कुछ फसलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, खाद्यान्नों के आयात में कमी आई है तथा कृषि के परंपरागत स्वरूप में परिवर्तन आया है। फिर भी इस कार्यक्रम में कुछ कमियां परिलक्षित होती हैं। हरित क्रांति का प्रभाव कुछ विशेष फसलों तक ही सीमित रहा, जैसे गेहूं, ज्वार, बाजरा। अन्य फसलों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। चावल भी इससे बहुत ही कम प्रभावित हुआ है। व्यापारिक फसलें भी इससे अप्रभावित ही हैं। अधिक उपजाऊ किस्म के बीज एक पूंजी-गहन कार्यक्रम है, जिसमें उर्वरकों, सिंचाई, कृषि यंत्रों आदि आगतों पर भारी मात्रा में निवेश करना पड़ता है। भारी निवेश करना छोटे तथा मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से बाहर है। इस तरह, हरित क्रांति से लाभ उन्हीं किसानों को हो रहा है, जिनके पास निजी पंपिंग सेट, ट्रैक्टर, नलकूप तथा अन्य कृषि यंत्र हैं। यह सुविधा देश के बड़े किसानों को ही उपलब्ध है तथा सामान्य किसान इन सुविधाओं से वंचित है।

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