Jayshankar Prasad


जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य की श्रेष्‍ठ प्रतिभा थे। द्विवेदी युग की स्‍थुल और इतिवृत्‍तात्‍मक कविता धारा को सूक्ष्‍म भाव सौन्‍दर्य, रमणीयता एवं माधुर्य से परिपूर्ण कर प्रसादजी ने नवयुग का सूत्रपात किया। ये छायावाद के प्रवर्तक, उन्‍नायक तथा प्रतिनिधि कवि होने के साथ ही नाटककार एवं कहानीकार भी रहे।
प्रसादजी का जन्‍म 30 जनवरी 1890 ई० को काशी में सुंघनी साहु नाम के प्रसिद्ध वैश्‍य परिवार में हुआ था। छोटी अवस्‍था में ही पिता तथा बड़े भाई के देहांत हो जाने के कारण इनका शिक्षा क्रम शीघ्र टुट गया। गृह के व्‍यापार को संभालते हुए भी इन्‍होंने स्‍वाध्‍याय पर विशेष ध्‍यान रखा। घर पर ही इन्‍होनें हिन्‍दी, अंग्रेजी, संस्‍कृत, उर्दू, फारसी का गहन अध्‍ययन किया। परिवारजनों की मृत्‍यु, अर्थ संकट, पत्‍नी वियोग आदि संघर्षों को अत्‍यंत जीवट से झेलता हुआ यह अलौकिक प्रतिभासम्‍पन्‍न साहित्‍यकार हिन्‍दी के मन्दिर में अपूर्व गन्‍धमय रचना-सुमन अर्पित करता रहा। 15 नवंबर सन् 1937 ई० में इनका रोग जर्जर शरीर निष्‍प्राण होकर हिन्‍दी साहित्‍य के एक अध्‍याय का पटाक्षेप कर गया।

 

चित्राधार, कानन-सुमन, झरना, लहर, प्रेम पथिक, आंसू, कामायनी आदि प्रसादजी की प्रमुख काव्‍य कृतियां हैं। कामायनी हिन्‍दी काव्‍य का गौरव ग्रंथ है। राज्‍यश्री, विशाख, जनमेजय का नागयज्ञ, अजातशत्रु, चन्‍द्रगुप्‍त, स्‍कंदगुप्‍त, ध्रुवस्‍वामिनी आदि उनके उत्‍कृष्‍ट नाटक हैं। अनेक कहानी संग्रह, कई उपन्‍यास तथा निबंधों की रचना करके प्रसादजी ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का प्रसाद हिन्‍दी को प्रदान किया।

 

प्रसाद जी का दृष्टिकोण विशुद्ध मानवीय रहा है। उसमें आध्‍यात्मिक आनन्‍दवाद की प्रतिष्‍ठा है। ये जीवन की चिरन्‍तन समस्‍याओं का कोई चिरन्‍तन माननीय समाधान खोजना चाहते थे। इच्‍छा, ज्ञान ओर क्रिया का सामंजस्‍य ही उच्‍च मानवता है। उसी की प्रतिष्‍ठा प्रसादजी ने की है। प्रवृत्ति और निवृत्ति का यह समन्‍वय ही भारतीय संस्‍कृति की अनुपम देन है और ‘कामायनी’ के माध्‍यम से यही सन्‍देश प्रसादजी ने सम्‍पूर्ण मानवता को दिया।

 

प्रसादजी की प्रारंभिक रचनाओं में ही, संकोच और झिझक होते हुए भी कुछ कहने को आकुल चेतना के दर्शन होते है। ‘चित्राधार’ में ये प्रकृति की रमणीयता और माधुर्य पर मुग्‍ध हैं। ‘प्रेम पथिक’ में प्रकृति की पृष्‍ठभूमि में कवि हृदय में मानव सौन्‍दर्य के प्रति जिज्ञासा का भाव जगाता है। इनकी कविता में माधुर्य तथा पद लालित्‍य भरा है। माधुर्य पक्ष की ओर स्‍वभावत: इनकी प्रवृत्ति होने से रहस्‍य-भावना में भी वही संयोग-वियोग वाली भावनाएं व्‍यक्‍त हुई हैं। ‘आंसू’ प्रसाद जी की उत्‍कृष्‍ट, गम्‍भीर, विशुद्ध मानवीय विरह काव्‍य है, जो प्रेम के स्‍वर्गीय रूप का प्रभाव छोड़ता है, इसीलिए कुछ लोग इसे आध्‍यात्मिक विरह का काव्‍य मानने का आग्रह करते है। ‘कामायनी’ प्रसाद-काव्‍य की सिद्धावस्‍था है, उनकी काव्‍य साधना का पूर्ण परिपाक है। कवि ने मनु और श्रद्धा के बहाने पुरुष और नारी के शाश्‍वत स्‍वरूप एवं मानव के मूल मनोभावों का काव्‍यगत चित्र अंकित किया है। काव्‍य, दर्शन और मनोविज्ञान की त्रिवेणी ‘कामायनी’ निश्‍चय ही आधुनिक काल की सर्वोकृष्‍ट सांस्‍कृतिक रचना है।

 

प्रसादजी छायावादी कवि थे। प्रेम और सौन्‍दर्य उनके काव्‍य का प्रधान विषय है। मानवीय संवेदना उसका प्राण है। प्रकृति को सचेतन अनुभव करते हुए उसके पीछे परम सत्‍ता का आभास कवि ने सर्वत्र किया है। यही उनका रहस्‍यवाद है। प्रसाद का रहस्‍यवाद साधनात्‍मक नहीं है। वह भाव-सौन्‍दर्य से संचालित प्रकृति का रहस्‍यवाद है। अनुभूति की तीव्रता, वेदना, कल्‍पना-प्रणवता आदि प्रसाद काव्‍य की कतिपय अन्‍य विशेषताएं है।

 

प्रसादजी ने काव्‍य भाषा के क्षेत्र में भी युगान्‍तर उपस्थित किया है। द्विवेदी युग की अभिधा-प्रधान भाषा और इतिवृत्‍तात्‍मक शैली के स्‍थान पर प्रसादजी ने भावानुकूल चित्रोपम शब्‍दों को प्रयोग किया है। लाक्षणिकता और प्रतीकात्‍मकता से युक्‍त प्रसादजी की भाषा में अद्भुत नाद-सौन्‍दर्य और ध्‍वन्‍यात्‍मकता है। चित्रात्‍मक भाषा में संगीतमय चित्र अंकित किये हैं। प्रसादजी ने प्रबंध तथा गीति-काव्‍य दोनों रूपों में समान अधिकार से श्रेष्‍ठ काव्‍य-रचना की है। लहर, झरना आदि उनकी मुक्‍तक काव्‍य रचनाएं है। प्रबंन्‍ध-काव्‍यों में ‘कामायनी’ जैसा रत्‍न इन्‍होनें ही दिया है।
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